Madras High Court : मद्रास उच्च न्यायालय ने एक महत्वपूर्ण फैसले में स्पष्ट किया कि विभिन्न जातीय समूह किसी देवता की पूजा अपने-अपने तरीकों से कर सकते हैं, लेकिन किसी भी जाति के सदस्य को यह दावा करने का अधिकार नहीं है कि कोई मंदिर केवल उनका है और उसके प्रशासन पर उनका विशेष अधिकार है। न्यायमूर्ति डी. भारत चक्रवर्ती ने कहा कि किसी विशेष जाति का किसी मंदिर पर स्वामित्व जताना न केवल अस्वीकार्य है, बल्कि यह जातिवाद को बढ़ावा देने वाला भी है।
जातिगत भेदभाव को बढ़ावा देने वाली मानसिकता पर अदालत की सख्त टिप्पणी
लाइव लॉ की एक रिपोर्ट के अनुसार, न्यायालय ने यह साफ कर दिया कि किसी भी जाति विशेष को मंदिर के स्वामित्व का दावा करने का अधिकार नहीं है। हर भक्त को मंदिर में पूजा और प्रबंधन में समान भागीदारी मिलनी चाहिए। न्यायमूर्ति ने कहा कि किसी विशेष जाति द्वारा मंदिर का प्रशासन करना कोई धार्मिक परंपरा नहीं है जिसे संविधान के अनुच्छेद 25 और 26 के तहत संरक्षित किया जा सके।
याचिका और न्यायालय की प्रतिक्रिया
अदालत ने यह फैसला उस याचिका के जवाब में दिया, जिसे सी. गणेशन नामक याचिकाकर्ता ने दायर किया था। याचिका में हिंदू धार्मिक और धर्मार्थ बंदोबस्ती विभाग के सहायक आयुक्त को निर्देश देने की मांग की गई थी कि वे अरुलमिगु पोनकालीअम्मन मंदिर को अन्य तीन मंदिरों—अरुलमिगु मरिअम्मन, अंगलामन और पेरुमल मंदिरों—से अलग करें।
न्यायालय ने नमक्कल जिले के तिरुचेंगोडे तालुका के मारापराई गांव निवासी गणेशन की याचिका को खारिज कर दिया। उन्होंने कहा कि पोनकालीअम्मन मंदिर का प्रबंधन अन्य दो मंदिरों के साथ संयुक्त रूप से किया जाता है और इसे जातिगत आधार पर अलग करने की मांग स्वीकार्य नहीं है।
संविधानिक सिद्धांतों के विरुद्ध जाति आधारित दावे
याचिकाकर्ता ने अपनी याचिका में हिंदू धार्मिक और मानव संसाधन एवं सामाजिक न्याय विभाग के सहायक आयुक्त की सिफारिश का हवाला दिया और इस पर कार्यवाही के लिए मानव संसाधन एवं सामाजिक न्याय आयुक्त को निर्देश देने की मांग की। हालांकि, न्यायालय ने स्पष्ट किया कि संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत अदालत अपने रिट क्षेत्राधिकार का प्रयोग करते हुए ऐसी सिफारिश को स्वीकार नहीं कर सकती।
न्यायमूर्ति डी. भारत चक्रवर्ती ने कहा कि जातिविहीन समाज संविधान द्वारा स्थापित एक लक्ष्य है और अदालत किसी भी ऐसी याचिका पर विचार नहीं कर सकती, जो जातिगत भेदभाव को प्रोत्साहित करती हो। उन्होंने जोर देकर कहा कि किसी विशेष जाति के लिए मंदिर को आरक्षित करना सामाजिक सद्भाव के खिलाफ है।
तमिलनाडु में जातिगत भेदभाव पर न्यायालय की कड़ी प्रतिक्रिया
मद्रास उच्च न्यायालय ने याचिकाकर्ता के हलफनामे की समीक्षा के दौरान टिप्पणी की कि वह ‘जाति’ के नाम को लेकर कितनी गंभीरता से प्रयास कर रहा है। अदालत ने कहा कि यह सोच पूरी तरह अस्वीकार्य है कि कोई मंदिर किसी विशेष जाति का हो सकता है।
न्यायमूर्ति ने सुनवाई के दौरान याचिकाकर्ता के वकील से कहा कि याचिका में जातिगत पूर्वाग्रह स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। उन्होंने यह भी आश्चर्य जताया कि तमिलनाडु के पश्चिमी क्षेत्र में जातिगत गौरव को लेकर इतना जुनून क्यों है।
जातिगत उन्माद पर अदालत की नाराजगी
अदालत ने कहा कि वह देख सकती है कि जमीनी स्तर पर क्या हो रहा है। उन्होंने चेतावनी देते हुए कहा कि जातिगत उन्माद अपनी सीमा पार कर चुका है और यह सामाजिक ताने-बाने के लिए खतरा बन रहा है। न्यायमूर्ति ने ऑनर किलिंग की घटनाओं का हवाला देते हुए कहा कि यह दुखद है कि माता-पिता अपने ही बच्चों की हत्या करने पर उतारू हैं।
उन्होंने कहा, "अब समय आ गया है कि ‘जाति’ नाम की इस धारणा को समाप्त कर दिया जाए।"
सुप्रीम कोर्ट का हवाला देते हुए न्यायालय का निष्कर्ष
न्यायमूर्ति ने कहा कि सर्वोच्च न्यायालय ने विभिन्न सामाजिक समूहों के अलग-अलग पूजा पद्धतियों के अधिकारों को बरकरार रखा है। हालांकि, उन्होंने स्पष्ट किया कि किसी भी जाति समूह को मंदिर के प्रशासन का विशेष अधिकार देने वाला कोई कानून नहीं है।
इस फैसले से यह स्पष्ट हो जाता है कि मंदिर किसी विशेष जाति के स्वामित्व में नहीं हो सकते और हर भक्त को उसमें पूजा और प्रबंधन का समान अधिकार मिलना चाहिए। मद्रास उच्च न्यायालय का यह फैसला जातिगत भेदभाव के खिलाफ एक सख्त संदेश देता है और संविधान के समता सिद्धांत को मजबूती प्रदान करता है।
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Brijendra
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