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Supreme Court : कांग्रेस के राज्यसभा सांसद इमरान प्रतापगढ़ी को सुप्रीम कोर्ट से बड़ी राहत मिली है। अदालत ने उनके खिलाफ गुजरात के जामनगर में दर्ज एफआईआर को खारिज करते हुए कहा है कि जिस सोशल मीडिया पोस्ट को लेकर यह मामला दर्ज किया गया था, उसमें ऐसा कोई तत्व नहीं था जिससे सांप्रदायिक सौहार्द को ठेस पहुंचती हो।

इस फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और इसके दुरुपयोग के आरोपों पर स्पष्ट और सशक्त टिप्पणी की है। अदालत ने कहा कि नागरिकों को संविधान द्वारा प्रदत्त यह अधिकार केवल एक औपचारिकता नहीं है, बल्कि इसकी रक्षा करना कानून व्यवस्था की ज़िम्मेदारी है। ऐसे मामलों में पुलिस को बिना पर्याप्त समीक्षा किए सीधे एफआईआर दर्ज नहीं करनी चाहिए।

क्या था पूरा मामला?

यह मामला 2 जनवरी की एक सोशल मीडिया पोस्ट से जुड़ा है, जिसमें इमरान प्रतापगढ़ी ने जामनगर में एक सामूहिक विवाह कार्यक्रम में शामिल होने के बाद एक पोस्ट साझा की थी। उस पोस्ट में उन्होंने एक कविता को बैकग्राउंड ऑडियो के रूप में इस्तेमाल किया था। कविता के कुछ शब्दों — जैसे "अरे जालिम लोगों, सुनो..." — को लेकर जामनगर निवासी किशनभाई नंदा ने आपत्ति जताई और शिकायत दर्ज कराई। शिकायत में कहा गया कि इस तरह की पंक्तियां सांप्रदायिक तनाव बढ़ा सकती हैं।

एफआईआर में भारतीय न्याय संहिता की धारा 196 और 197 लगाई गईं, जिनमें अधिकतम पांच वर्ष की सजा हो सकती है। इस एफआईआर को रद्द कराने के लिए इमरान ने पहले गुजरात हाई कोर्ट का रुख किया, जहां से उन्हें कोई राहत नहीं मिली। हाई कोर्ट ने कहा कि मामला जांच के प्रारंभिक चरण में है और इमरान एक जिम्मेदार सांसद होने के नाते कानूनी प्रक्रिया का पालन करें।

सुप्रीम कोर्ट का फैसला: आज़ादी की सीमाओं और संभावनाओं की व्याख्या

इमरान प्रतापगढ़ी ने इसके बाद सुप्रीम कोर्ट में अपील की। 21 जनवरी को कोर्ट ने इस मामले में कार्रवाई पर रोक लगा दी थी। अब सुप्रीम कोर्ट की दो-न्यायाधीशीय पीठ, जिसमें न्यायमूर्ति अभय एस ओका और न्यायमूर्ति उज्ज्वल भुइयां शामिल थे, ने एफआईआर रद्द करने का विस्तृत आदेश जारी किया है।

अदालत ने अपने फैसले में कहा कि संविधान की प्रस्तावना सभी नागरिकों को विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार देती है। कला, साहित्य, नाटक और फिल्म जैसे माध्यम व्यक्ति की सोच को प्रकट करने का ज़रिया हैं और उनका सम्मान किया जाना चाहिए।

संविधान का अनुच्छेद 19(1)(ए) मीडिया के सभी रूपों के जरिए विचारों को व्यक्त करने की स्वतंत्रता प्रदान करता है। वहीं अनुच्छेद 19(2) कुछ तर्कसंगत सीमाएं भी बताता है, लेकिन उनका उद्देश्य किसी की अभिव्यक्ति को दबाना नहीं है। अदालत ने यह भी कहा कि सम्मान के साथ जीने का अधिकार (अनुच्छेद 21) तभी पूर्ण होता है जब व्यक्ति को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता भी प्राप्त हो।

अदालत की चेतावनी: बिना समीक्षा के एफआईआर न करें

फैसले में न्यायाधीशों ने साफ कहा कि समाज में नफरत फैलाने के आरोप लगते ही पुलिस का कर्तव्य है कि वह पहले तथ्यों की जांच करे। किसी भी सामान्य नागरिक की आपत्ति या भावनात्मक प्रतिक्रिया के आधार पर एफआईआर दर्ज करना न्यायोचित नहीं है। न्यायालय ने इस बात पर भी जोर दिया कि किसी के बयान से यदि कुछ लोग असहमत हैं या उन्हें वह नापसंद है, तब भी उस व्यक्ति के बोलने के अधिकार का सम्मान जरूरी है।

इसी फैसले में भारतीय दंड संहिता की धारा 196 और नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 173 की व्याख्या करते हुए कोर्ट ने कहा कि किसी भी साहित्यिक या कलात्मक अभिव्यक्ति को केवल इसलिए आपराधिक नहीं ठहराया जा सकता क्योंकि वह किसी विशेष दृष्टिकोण या संवेदनशीलता के अनुकूल नहीं बैठती।


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